शिक्षा का अधिकार अधिनियम के चौदह वर्ष पुरे, बालकों के अधिकार अभी भी अधूरे


जालोर। 26 अगस्त 2009 ठीक 14 वर्ष पूर्व शिक्षा का अधिकार अधिनियम महामहिम राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया गया था एवं 27 अगस्त 2009 को गजट में प्रकाशित किया गया था, जिसका मुख्य उद्देश्य शिक्षा का सार्वभौमिकरण करते हुए छ: से चौदह वर्ष के बच्चों को निशुल्क एवं अनिवार्य गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करना था। इस अधिनियम में कुल सात अध्याय, अड़तीस धाराएं एवं एक अनुसूची है। 2 दिसम्बर 2002 को को संविधान के 86 वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 21 अद्ध में शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया। यह अधिनियम 20 जुलाई 2009 को राज्यसभा एवं 4 अगस्त 2009 को लोकसभा में पारित किया गया। 26 अगस्त 2009 को महामहिम राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के पश्चात यह अधिनियम बन गया। 1 अप्रैल 2010 को पूरे देश में इस अधिनियम के लागू होते ही इस अधिनियम को लागू करने वाला 135वां देश बन गया, परन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यदि शिक्षा व्यवस्था को देखा जाये तो स्थिति कुछ और ही दिखाई दे रही है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम बालकों को विद्यालय से जोडऩे तक ही सीमित नहीं है बल्कि बालकों को विद्यालय से जोड़ते हुए गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्रदान करना भी है, जो शिक्षक के बिना कोरी कल्पना है। वर्तमान में शिक्षक विभिन्न गैर शैक्षणिक कार्य यथा बीएलओ, मोबाइल वितरण तथा राज्य एवं केन्द्र सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं की सफलता के नाम पर शिक्षार्थी, कक्षा-कक्ष एवं विद्यालय से दूर किया जा रहा है। वर्तमान में जिले के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो जिले में अधिकांश शिक्षक के अधिकांश समय को चुनाव कार्य के नाम पर वर्ष पर्यन्त चलने वाले मतदाता सूचियों के अद्यतन में खपाया जा रहा है, जिससे शिक्षक-शिक्षार्थी के मध्य दूरियां बढ़ रही है, गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा केवल आंकड़ों में रह गई है। जो स्थिति अधिनियम के लागू होने से पूर्व थी तथा अधिनियम के लागू होने के चौदह वर्ष पश्चात भी स्थिति यथावत है। अधिनियम की सार्थकता तभी सिद्ध हो सकती है जबतक इसे कड़ाई से लागू ना किया जाये, अधिनियम की सार्थकता हेतु केवल आंकड़ों का प्रबंधन ना किया जाये बल्कि धरातल पर कार्य किया जाये। यह दायित्व अकेले शिक्षक का ही नहीं है, यह दायित्व सम्पूर्ण राष्ट्र के नागरिकों का है। चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात भगवान श्री राम पुन: अयोध्या आ गये थे लेकिन अधिनियम के चौदह वर्ष पश्चात भी राज्य सरकार एवं प्रशासन की दोगली नीतियों द्वारा बालकों को उनके मौलिक अधिकारों से दूर किया जा रहाए सरकारों को चाहिये की वे राष्ट्र के भविष्य के मौलिक अधिकारों के रक्षार्थ आगे आये तथा शिक्षक-शिक्षार्थी संबंध पुन: अपने पुराने स्वरूप में आये ताकी राष्ट्र नव उन्नति की ओर अग्रसर हो सके।

::इनका कहना है:: –

शिक्षा बालक का मौलिक अधिकार है, शिक्षकों को विभिन्न गैर शैक्षणिक कार्यों में लिप्त कर बालकों को उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। बालकों के हितों की रक्षा हेतु समाज के हर वर्ग को आगे आना चाहिये।

शैतान सिंह, जिलाध्यक्ष, राजस्थान शिक्षक संघ राष्ट्रीय जालोर

एक बालक जिसे इस आशा और विश्वास के साथ विद्यालय में भेजा जाता है कि वह विद्यालय में अच्छी शिक्षा प्राप्त करेगा, परन्तु वास्तविकता यह है की शिक्षक चाह कर भी अपने मौलिक कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर पा रहा है, जिसका मूल कारण प्रशासन द्वारा शिक्षक पर अनेक प्रकार के गैर-शैक्षणिक कार्यों का थोपा जाना।

भाखराराम, प्रदेशमंत्री, राजस्थान बीएलओ शिक्षक संघर्ष समिति

-हाल ही में चंद्रयान अभियान की सफलता से पूरे राष्ट्र के लिये हर्ष का विषय है, यह तभी संभव हो पाया है जब शिक्षक को उसके कर्तव्यों को पूरा करने दिया गया, शिक्षक हजारों बार समय पर अपनी कक्षा में पहुंचा है तभी आज राष्ट्र को ये क्षण देखने को मिले है, परन्तु वर्तमान व्यवस्था को देख कर ऐसी कल्पना ही की जा सकती है यथार्थ में शिक्षक को उसकी कक्षाओं से अलग करने के कुत्सित प्रयत्न किये जा रहे है, प्रयत्न कर्ता भी वे ही जो एक शिक्षक के कारण ही उच्च पदों पर आसीन है।

दलपत सिंह आर्य, जिला संरक्षक, राजस्थान शिक्षक संघ शेखावत जालोर

-बालकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना समाज एवं राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य है। यदि आज का बालक गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा ग्रहण करेगा तो कल के उत्कृष्ट समाज की कल्पना करना उचित है, परन्तु यदि शिक्षक को बालकों से अलग किया जाकर आप उज्ज्वल भविष्य की कल्पना करते है तो वह केवल मात्र एक स्वप्न है। मेरी सरकार एवं प्रशासन से गुजारिश है कि शिक्षक को केवल शिक्षण कार्य करवाने दे ताकी राष्ट्र एवं समाज के उन्नत नागरिकों का निर्माण किया जा सके।

शिवदत्त आर्य, प्रदेशाध्यक्ष, राजस्थान शिक्षक संघ शेखावत


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