सामवेदी श्रावणी उपाकर्म शनिवार को मनाया जाएगा


भीनमाल। श्री दर्शन पंचांग कर्ता शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी ने बताया कि सामवेद का श्रावणी उपाकर्म सिंह के सूर्य में और अपराह्न काल में हस्त नक्षत्र हो, उस समय मनाया जाता है। जिस प्रकार क्षत्रियों के लिए विजयदशमी और वैश्य के लिए दीपावली का महत्व है। इस प्रकार समस्त ब्राह्मणों के लिए श्रावणी उपाकर्म का महत्व बताया गया है। जीवन में ज्ञात-अज्ञात किए हुए समस्त पापों का प्रायश्चित करने के लिए श्रावणी उपाकर्म अवश्य करना चाहिए। इस दिन ब्राह्मणों द्वारा मध्याह्न संध्या, भासादि सामवेद पाठए ब्रह्म यज्ञ, देव पितृ मनुष्य तर्पण, विष्णु तर्पण, सूर्योपस्थान किया जाता है। गोभिलाचार्य, भारद्वाज, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, जन्मदग्नि, कश्यप, अरूंधति तर्पण, ऋषि श्राद्ध, प्लव व अरिष्टवर्ग सामपाठ किया जाता है। त्रिवेदी ने बताया कि उपाकर्म का अर्थ है प्रारंभ करना। उपाकरण का अर्थ है आरंभ करने के लिए निमंत्रण या निकट लाना। यह वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास एकत्रित होने का काल है। इसके आयोजन काल के बारे में धर्मगंथों में लिखा गया है कि जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, उस समय हस्त नक्षत्र में उपाकर्म होता है। यह सत्र माघ शुक्ल प्रतिपदा या पौष पूर्णिमा तक चलता था। भाद्र पद शुक्ल पक्ष के हस्त नक्षत्र श्रावणी उपाकर्म करना चाहिए। श्रावणी स्नान उपाकर्म करने के शास्त्रोक्त निर्देश हेमाद्रिकल्प, स्कंद पुराण, स्मृति महार्णव, निर्णय सिंधुए धर्म सिंधु आदि योतिष व धर्म के निर्णय ग्रंथों में है। शास्त्री ने बताया कि श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है। प्रायश्चित्त संकल्पए संस्कार और स्वाध्याय। सर्वप्रथम प्रायश्चित्त रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेदादि के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस सत्र का अवकाश समापन से होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है। वर्तमान में इस दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। प्रतीक रूप में किया जाने वाला यह विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है।


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